दुर्गादास राठौड़ (13 अगस्त 1638 – 22 नवंबर 1718) भारतीय इतिहास के एक महान राजपूत योद्धा, रणनीतिकार और मारवाड़ के राठौड़ वंश के रक्षक थे। Durgadas Rathore को मारवाड़ की स्वतंत्रता और सम्मान को बनाए रखने के लिए मुगल सम्राट औरंगजेब के खिलाफ उनके अद्वितीय संघर्ष के लिए जाना जाता है। दुर्गादास का जीवन वीरता, कर्तव्यनिष्ठा, और आत्म-त्याग का एक अनुपम उदाहरण है। Durgadas Rathore के जीवन की कहानी न केवल मारवाड़ के इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, बल्कि यह भारतीय स्वाभिमान और देशभक्ति की भावना को भी प्रेरित करती है। उनकी गाथाएँ आज भी राजस्थान के लोकगीतों में गाई जाती हैं, और दुर्गादास राठौड़ को “मारवाड़ का उद्धारक” और “राठौड़ों का कोहिनूर” जैसे सम्मानजनक नामों से याद किया जाता है। यहाँ उनका विस्तृत जीवन परिचय प्रस्तुत है।
दुर्गादास राठौड़ का प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त 1638 को मारवाड़ रियासत के सालवा गाँव में एक राठौड़ राजपूत परिवार में हुआ था। उनके पिता आसकरण राठौड़ जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह प्रथम के दरबार में एक उच्च पदस्थ मंत्री थे। उनकी माता का नाम नेतकँवर बाई था। आसकरण की कई पत्नियाँ थीं, और पारिवारिक मतभेदों के कारण नेतकँवर को अपने पुत्र दुर्गादास के साथ सालवा के निकट लूणवा गाँव में रहना पड़ा। यहाँ Durgadas Rathore का बचपन बीता, जो एक साधारण और ग्रामीण परिवेश में था।
लूणवा में रहते हुए दुर्गादास ने अपनी माँ के साथ खेती-बाड़ी में हाथ बँटाया। उनका बचपन कठिनाइयों से भरा था, लेकिन इसने उनके व्यक्तित्व में धैर्य, सहनशक्ति और स्वाभिमान जैसे गुणों को विकसित किया। कम उम्र से ही वे शारीरिक रूप से मजबूत और साहसी थे। उनकी शारीरिक शक्ति और नन्ही उम्र में ही उनके साहस की एक घटना ने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई। एक बार एक व्यक्ति ने अपने ऊँट को उनके खेत में छोड़ दिया, जिससे फसल को नुकसान पहुँचा। जब Durgadas Rathore ने उससे शिकायत की, तो उसने जोधपुर दरबार के बारे में अपमानजनक टिप्पणी की। क्रोधित होकर दुर्गादास ने उस व्यक्ति को तलवार से मार डाला। इस घटना के बाद उन्हें महाराजा जसवंत सिंह के सामने पेश किया गया। Durgadas Rathore ने नन्ही उम्र में ही अपनी निडरता का परिचय देते हुए कहा कि उसने दरबार की गरिमा की रक्षा के लिए ऐसा किया। उनकी इस वीरता से प्रभावित होकर जसवंत सिंह ने उनकी पीठ थपथपाई और कहा, “यह लड़का मारवाड़ का उद्धारक बनेगा।” यह भविष्यवाणी बाद में सच साबित हुई।
मारवाड़ के संकट और दुर्गादास का उदय
दुर्गादास का जीवन तब एक निर्णायक मोड़ पर आया जब 10 दिसंबर 1678 को महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु अफगानिस्तान के जामरूद में एक सैन्य अभियान के दौरान हो गई। उस समय जसवंत सिंह के कोई जीवित पुत्र नहीं थे, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनकी दो रानियों ने दो पुत्रों को जन्म दिया। एक पुत्र की मृत्यु शैशवावस्था में ही हो गई, जबकि दूसरा पुत्र, अजीत सिंह, जीवित रहा। जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद मारवाड़ में उत्तराधिकार का संकट पैदा हो गया। मुगल सम्राट औरंगजेब ने इस स्थिति का फायदा उठाकर मारवाड़ को अपने साम्राज्य में मिलाने की योजना बनाई। उसने अजीत सिंह और उनकी माँ को दिल्ली में शाही हरम में रखने की शर्त रखी और यह भी माँग की कि अजीत सिंह को मुसलमान बनाया जाए।
इस संकट के समय Durgadas Rathore ने अपनी बुद्धिमत्ता और साहस का परिचय दिया। वे और उनके कुछ विश्वस्त राठौड़ साथी दिल्ली पहुँचे और एक साहसिक योजना के तहत अजीत सिंह और उनकी माँ को मुगल कैद से छुड़ाकर जोधपुर ले आए। इस दौरान मुगल सैनिकों के साथ उनकी झड़प हुई, जिसमें दुर्गादास ने अपनी तलवारबाजी और नेतृत्व कौशल से सभी को सुरक्षित निकाल लिया। यह घटना उनकी वीरता और कूटनीति का पहला बड़ा प्रमाण थी। इसके बाद औरंगजेब ने जोधपुर पर कब्जा करने के लिए एक विशाल सेना भेजी।
दुर्गादास राठौड़ द्वारा मारवाड़ के लिए संघर्ष और औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह
1679 में औरंगजेब ने मारवाड़ पर आक्रमण किया और जोधपुर पर कब्जा कर लिया। उसने अपने पुत्र शाहजादा मुअज्जम को मारवाड़ का सूबेदार नियुक्त किया। लेकिन दुर्गादास ने हार नहीं मानी। उन्होंने मारवाड़ के राठौड़ सरदारों को एकजुट किया और मुगलों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध शुरू किया। Durgadas Rathore की रणनीति में अरावली की पहाड़ियों और जंगलों का उपयोग कर छापामार हमले करना शामिल था। दुर्गादास की सेना में राजपूतों के साथ-साथ भील और अन्य स्थानीय जनजातियों के योद्धा भी शामिल थे। उनकी इस रणनीति ने मुगल सेना को बार-बार परेशान किया और मारवाड़ पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने से रोका।
1680-81 में दुर्गादास ने एक बड़ा कदम उठाया। उन्होंने औरंगजेब के पुत्र शाहजादा अकबर को अपने पक्ष में करने की योजना बनाई। अकबर अपने पिता के खिलाफ विद्रोह कर रहा था। Durgadas Rathore ने अकबर को समर्थन देने का वादा किया और उसे मारवाड़ में शरण दी। इस गठजोड़ ने औरंगजेब को गहरी चोट पहुँचाई। हालाँकि, अकबर का विद्रोह असफल रहा और वह बाद में फारस भाग गया, लेकिन दुर्गादास ने इस घटना से अपनी कूटनीतिक क्षमता का परिचय दिया। इस दौरान Durgadas Rathore ने अकबर की बेटी को भी अपनी संरक्षा में लिया और उसकी हिंदू परंपराओं के अनुसार परवरिश की, जो उनकी धार्मिक सहिष्णुता और ईमानदारी का प्रमाण है।
दुर्गादास राठौड़ का लंबा निर्वासन और मारवाड़ की रक्षा
1681 से 1687 तक दुर्गादास मारवाड़ से बाहर रहे। इस दौरान वे दक्कन में थे और अजीत सिंह को सुरक्षित रखने के लिए विभिन्न स्थानों पर भटकते रहे। वे मराठा शासक संभाजी के संपर्क में आए और उनके साथ मिलकर मुगलों के खिलाफ कई अभियान चलाए। संभाजी के साथ उनकी मित्रता ने मारवाड़ के संघर्ष को मजबूती दी। 1687 में Durgadas Rathore अजीत सिंह के साथ मारवाड़ लौटे और फिर से मुगलों के खिलाफ प्रत्यक्ष युद्ध शुरू किया। Durgadas Rathore की सेना ने कई छोटे-बड़े युद्धों में मुगल चौकियों को नष्ट किया और मारवाड़ के कई हिस्सों को मुक्त कराया।
1694 और 1698 में दुर्गादास ने औरंगजेब के साथ बातचीत की। औरंगजेब ने अकबर की बेटी और बेटे को अपनी हिरासत में ले लिया था। दुर्गादास ने इन बच्चों को औरंगजेब को सौंप दिया, लेकिन इसके बदले में मारवाड़ की स्वतंत्रता की माँग रखी। औरंगजेब ने उन्हें क्षमा तो कर दिया और अजीत सिंह को एक जागीर दी, लेकिन मारवाड़ को पूरी तरह राठौड़ों के हवाले नहीं किया। Durgadas Rathore को गुजरात में 3,000 सैनिकों की एक मुगल टुकड़ी का कमांडर बनाया गया, लेकिन उनकी असली मंशा मारवाड़ की आजादी थी।
दुर्गादास राठौड़ का अंतिम वर्ष और मृत्यु
1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य कमजोर हुआ। दुर्गादास ने इस अवसर का लाभ उठाया और 1708-1710 के बीच हुए राजपूत विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। Durgadas Rathore जयपुर के राजा जय सिंह द्वितीय के साथ विद्रोह के नेता चुने गए। उनकी सेना ने कई मुगल अधिकारियों को हराया और उनसे चौथ (कर) वसूल किया। अंततः 1714 में अजीत सिंह को मारवाड़ की गद्दी मिली, और दुर्गादास का सपना पूरा हुआ।
हालाँकि, अजीत सिंह ने बाद में Durgadas Rathore के प्रति ईर्ष्या दिखाई और उन्हें दरबार से हटा दिया। अपने अंतिम दिनों में दुर्गादास निर्वासित जीवन जीते रहे। वे उज्जैन चले गए, जहाँ 22 नवंबर 1718 को क्षिप्रा नदी के तट पर उनकी मृत्यु हो गई। Durgadas Rathore की मृत्यु के साथ एक युग का अंत हुआ, लेकिन उनकी कीर्ति को अजीत सिंह ने इतिहास से मिटाने की कोशिश की। फिर भी, लोककथाओं और गीतों में उनकी वीरता आज भी जीवित है।
दुर्गादास राठौड़ का व्यक्तिगत जीवन और परिवार
Durgadas Rathore का विवाह हुआ था, लेकिन उनके परिवार के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। उनकी पत्नी और संभावित संतानों का उल्लेख इतिहास में नहीं मिलता। उनका जीवन पूरी तरह मारवाड़ और उसके लोगों की सेवा को समर्पित था। वे एक सादगीपूर्ण जीवन जीते थे और युद्ध के दौरान कई बार घोड़े पर ही भोजन पकाते और खाते थे, क्योंकि उन्हें हर पल तैयार रहना पड़ता था।
दुर्गादास राठौड़ के व्यक्तित्व और विशेषताएँ
Durgadas Rathore शारीरिक रूप से मजबूत और मानसिक रूप से तेज थे। उनकी लंबाई औसत से अधिक थी, और वे एक कुशल तलवारबाज और घुड़सवार थे। उनकी सबसे बड़ी खासियत उनकी ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और आत्म-त्याग की भावना थी। वे शूरवीर होने के साथ-साथ साधु पुरुष भी थे, जैसा कि प्रेमचंद ने अपने उपन्यास “दुर्गादास” में लिखा है। उनकी कूटनीति और रणनीतिक सोच ने उन्हें औरंगजेब जैसे शक्तिशाली शत्रु के सामने भी अडिग रखा।
दुर्गादास राठौड़ का सामाजिक प्रभाव और विरासत
दुर्गादास की वीरता और बलिदान की कहानियाँ आज भी राजस्थान में लोकप्रिय हैं। एक प्रसिद्ध दोहा—“माई ऐहड़ौ पूत जण, जेहड़ौ दुर्गादास, बांध मरुधरा राखियो बिन खंभा आकाश”—उनकी महिमा को दर्शाता है, जिसका अर्थ है “हे माँ, ऐसा पुत्र जन्म दे जैसे दुर्गादास, जिसने बिना आधार के मारवाड़ को संभाला।” Durgadas Rathore की स्मृति में हर साल 13 अगस्त को उनकी जयंती मनाई जाती है।
उनके जीवन ने न केवल मारवाड़ को बचाया, बल्कि हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा में भी योगदान दिया। औरंगजेब की इस्लामीकरण की नीति को विफल करने में उनकी भूमिका को “हिंदू जाति का तारनहार” कहा जाता है। उनकी गाथाएँ साहित्य में भी अमर हैं, जैसे प्रेमचंद का उपन्यास “दुर्गादास”, जिसमें उनकी महानता को चित्रित किया गया है।
Durgadas Rathore का जीवन यह सिखाता है कि सच्ची वीरता केवल शारीरिक शक्ति में नहीं, बल्कि आत्मिक बल और कर्तव्य के प्रति समर्पण में होती है। उनका मानना था कि स्वतंत्रता और सम्मान से बड़ा कोई धन नहीं है। वे अपने लोगों के लिए एक ढाल थे और कभी भी व्यक्तिगत लाभ के लिए अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।
दुर्गादास राठौड़ का जीवन एक अनुकरणीय गाथा है, जो हमें साहस, बलिदान और देशभक्ति का पाठ पढ़ाती है। उन्होंने अपने जीवन को मारवाड़ की स्वतंत्रता और अजीत सिंह के अधिकारों की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया। औरंगजेब जैसे शक्तिशाली शासक को चुनौती देना और मारवाड़ को मुगल अधीनता से बचाना उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। उनकी मृत्यु के बाद भी उनकी कहानी जीवित रही, और वे हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा बने जो अपने देश और संस्कृति के लिए लड़ना चाहता है।
Durgadas Rathore का योगदान इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है। वे एक योद्धा से कहीं बढ़कर थे—वे मारवाड़ के संरक्षक, राठौड़ वंश के रक्षक और भारतीय स्वाभिमान के प्रतीक थे। उनका जीवन हमें यह संदेश देता है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपने मूल्यों पर अडिग रहकर विजय प्राप्त की जा सकती है। उनकी यह गाथा आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अनमोल धरोहर है, जो हमें अपने कर्तव्य और सम्मान की रक्षा के लिए प्रेरित करती रहेगी।